अपने हिस्से की धूप को तरसते, किसी की यादों के दरख्त के साए में अपने पैर के अंगूठे से दायरे बनाते... और फिर उन्ही दायरों में उलझ कर रह गए इक बेगुनाह मुजरिम की दास्ताँ ....
पिद्दले बरस ये खौफ़ था...तुझे खो न दूँ कहीं... अब के बरस ये दुआ है... तेरा सामना न हो...!